नवरात्रि में कन्या पूजन का महत्त्व, कन्या भोज से काटते है रोग मिलती है समृद्धि



मरुधर गूंज, बीकानेर (20 अक्टूबर, 23)। हमारी हिन्दू वैदिक संस्कृति के त्योहारों की सबसे अच्छी यह है कि पूजा उपासना के विधि धार्मिक उपासना के विविध धार्मिक कर्मकांडों से सजे इन पर्वों के आयोजन सामाजिक समरसता के संधिबेला में पडऩे वाले चेत्र व आश्विन माह के नवरात्रि पर्वों की विशिष्ट महता हमारे तत्त्वज्ञ मनीषियों ने बतायी है। अपने ग्रंथ 'उपासना के दो चरण - ध्यान और जप' में लिखते है कि नवरात्रि काल में वायुमंडल में दैवीय शक्तियों के स्पंदन अत्यधिक सक्रिय होते है तथा सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह भी इन दिनों वायुमंडल में तेजी से उभरते और चेतना को गहराई से प्रभावित करते हैं। 

इसी कारण हमारे वैदिक ऋषियों ने इन संसधिकालों की नवरात्रि साधना में माँ शक्ति की आराधना का विधान बनाया था। ऋषि कहते है कि माँ आदिशक्ति का स्वरूप वस्तुत: शक्ति का विश्वरूप है और नवरात्र का अनुष्ठान शक्ति के साथ मर्यादा का अनुशासन और माँ के सम्मान का संविधान। हमारे मनीषियों ने प्रतिपदा से लेकर नवमी तक आयोजित किये जाने वाले देवी आराधना के इस नौ दिवसीय साधनात्मक अनुष्ठान को कन्या पूजन से जोड़ कर इसे अधिक देवत्वपूर्ण बना दिया। नौ कुमारी कन्याएं, नौ देवियों का प्रतिबिंब मानीजाती है। सनातन धर्म में कन्या पूजन की परंपरा सदियों से चली आ रही है। श्रीमद्देवी भागवत महापुराण में स्पष्ट कहा  गया है कि कन्या भोज के बिना नवरात्रि अनुष्ठान पूरा नहीं होता है। देवी माँ को जितनी प्रसन्नता कन्या भोज से मिलती है, उनती प्रसन्नता हवन और दान से भी नहीं मिलती। इसीलिए कन्या पूजन करके माँ भगवती की कृपा  सहज ही पायी जा सकती है। पण्डितों के अनुसार यूं तो कन्या पूजन नवरात्रि काल के दौरान कभी भी कर सकते हैं लेकिन अष्टमी और नवमी की तिथि कन्या पूजन के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी गयी है।


ऐसे शुरू हुई कन्या पूजन की परम्परा 

ज्योतिषय प्रेमशंकर शर्मा के अनुसार कन्या पूजन के शुभारम्भ को लेकर यूं तो कई अलग-अलग मान्यताएं व पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं लेकिन इसनमें जम्मू क्षेत्र के भक्त श्रीधर की कथा विशेष  रूप से लोकप्रिय है। कथा के अनुसार श्रीधर नाम का एक निर्धन व संतानहीन पंडित माँ का परम भक्त था। एक बार उसके मन में नवरात्रि साधना ने उपरांत कुमारी कन्याओं के पूजन और गांव में भण्डारा करने का विचार आया। परन्तु गरीबी से लाचार श्रीधर कोई व्यवस्था न हो पाने के कारण काफी दु:खी था। कुछ और न सूझने पर वह अपनी पत्नी के साथ माँ की प्रतिमा  के आगे शीश नवाकर करुणा स्वर में प्रार्थना करने लगा कि यदि यह इच्छा तूने मेरे मन में डाली है तो तू ही इसे कैसे भी पूरा करा सकती है। कथा कहती है कि जब वह इस तरह माँ से प्रार्थना कर रहा था कि तभी देखा कि अचानक एक छोटी सी सुन्दर कन्या उसके सामने मुस्कुराते हुए आकर खड़ी हो गयी और उसके चमत्कार से श्रीधर की कन्या पूजन व गाँव भर के सुस्वादु भण्डारे की इच्छा आश्चर्यजनक रूप से सफल हो गयी। उस कन्या रूपी माँ ने अपनी आठ अन्य सखियों के साथ श्रीधर का पूजन व प्रसाद भी ग्रहण किया। यही नहीं, उस सफल आयोजन के साल भी के भीतर श्रीधर के घर एक कन्याका जन्म भी हुआ और उसे माँ वैष्णोदेवी के सिद्धपीठ के प्रथम पुरोहित होने का गौरव भी मिला। कहा जाता है कि तभी से नवरात्रि व्रत के पारण के दिन कन्या पूजन की परम्परा शुरू हो गयी। 


देवी माँ के विविध कन्या स्वरूप

देवी पुराण में उल्लेख मिलता है कि नवरात्रि साधना की पूर्णाहुति पर दो से दस वर्ष तक की नौ कन्याओं का पूजन करना शुभ होता है। सनातन शास्त्र कहता है कि 

  • 2 वर्ष की कन्या का रूप 'कुमारी' है। जिसके पूजन से दु:ख और दरिद्रता दूर होती है। 

  • 3 वर्ष की कन्या का रूप 'त्रिमूर्ति' होती है। जिसके पूजन से घर में धन-धान्य और परिवार में सुख-समृद्धि आती है। 

  • 4 वर्ष की कन्या को 'कल्याणी' कहते है। जिसकी पूजा से परिवार का कल्याण होता है। 

  • 5 वर्ष की कन्या 'रोहिणी' होती है। जिसे पूजन से व्यक्ति रोगमुक्त हो जाता है।

  • 6 वर्ष की कन्या 'कालिका' का रूप होता है। जिसकी पूजा से विद्या, विजय, राजायोग की प्राप्ति होती है।

  • 7 वर्ष की कन्या 'शाम्भवी' कहलाती है जिसका पूजन करने से वाद-विवाद में विजय प्राप्त होता है।

  • 8 वर्ष की कन्या 'दुर्गा' कहते है। जिसका पूजन करने से शत्रुओं का नाश होता है।

        तथा असाध्य कार्य पूर्ण होते हैं। इस वर्ष की कन्या 'सुभद्रा' कहते है। जिसकी पूजा से व्यक्ति के सभी मनोरथ सुफल होते हैं।


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