इंदिरा एकादशी को जरूर पढ़ें यह व्रत कथा और जानें शुभ मुहूर्त

 



        मरुधर गूंज, बीकानेर (08 अक्टूबर, 23)। हिंदू धर्म में एकादशी पर्व का विशेष महत्व है। आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को इंदिरा एकादशी कहा जाता है। इंदिरा एकादशी पितृपक्ष के दौरान आती है, इसलिए इस व्रत का पौराणिक महत्व भी ज्यादा होता है। धार्मिक मान्यता है कि इंदिरा एकादशी व्रत को रखने से पितरों की आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस दिन विशेष तौर पर भगवान विष्णु के स्वरूप शालिग्राम की पूजा की जाती है। 


कब है इंदिरा एकादशी व्रत 

        ज्योतिषाचार्य प्रेम शंकर शर्मा के मुताबिक, इंदिरा एकादशी 10 अक्टूबर, मंगलवार को रखा जाएगा। हिंदू पंचांग के मुताबिक, इंदिरा एकादशी की शुरुआत 9 अक्टूबर, सोमवार को दोपहर 12.36 मिनट से होगी और इस तिथि का समापन 10 अक्टूबर, मंगलवार को दोपहर 3.08 बजे होगा। लेकिन उदया तिथि के कारण इंदिरा एकादशी का व्रत 10 अक्टूबर को ही रखा जाएगा। ऐसे में व्रत का पारण 11 अक्टूबर को सुबह 06.19 मिनट से सुबह 08.39 मिनट के बीच किया जाना चाहिए। 


इंदिरा एकादशी व्रत पर ऐसे करें पूजा

  • सुबह जल्दी उठकर घर की सफाई के बाद स्नान करें और व्रत का संकल्प लें।

  • घर में पूजा-पाठ करें और नदी में पितरों का विधि-विधान के साथ तर्पण करें।

  • श्राद्ध कर्म के बाद ब्राह्मण भोज कराएं और बाद में खुद भोजन करें।

  • दशमी पर सूर्यास्त के बाद भोजन न करें।

  • एकादशी व्रत के दिन गाय, कौवे और कुत्ते को भी भोजन दें।

  • द्वादशी को पूजन के बाद दान-दक्षिणा दें।

इंदिरा एकादशी की पौराणिक कथा 


        एकादशी व्रत का संबंध भगवान विष्णु से माना जाता है। इसको लेकर पौराणिक कथा है कि सतयुग में महिष्मती नगर में इंद्रसेन नाम के राजा थे। एक बार उन्हें सपना आया कि उनके माता-पिता मृत्यु के बाद कष्ट भोग रहे हैं। राजा की जब नींद खुली तो पितरों की दुर्दशा को लेकर वे काफी चिंतित हुए। इस बात लेकर उन्होंने विद्वानों, ब्राह्मणों और मंत्रियों को बुलाकर विचार किया। तब विद्वानों ने सलाह दी कि आपको सपत्नीक इंदिरा एकादशी का व्रत करना चाहिए, जिसके पुण्य से पितरों की मुक्ति हो सकती है। तब राजा ने भगवान शालिग्राम की पूजा कर पितरों की आराधना की और गरीबों और जरूरतमंदों को दान दिया। इसके बाद भगवान ने उन्हें दर्शन देकर कहा- "राजन तुम्हारे व्रत के प्रभाव से तुम्हारे पितरों को मोक्ष की प्राप्ति हुई है।



इंदिरा एकादशी व्रत कथा

        धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! आश्विन कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके कहिए। भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि इस एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी है। यह एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तथा पितरों को अ‍धोगति से मुक्ति देने वाली होती है। हे राजन! ध्यानपूर्वक इसकी कथा सुनो। इसके सुनने मात्र से ही वायपेय यज्ञ का फल मिलता है।

        प्राचीनकाल में सतयुग के समय में महिष्मति नाम की एक नगरी में इंद्रसेन नाम का एक प्रतापी राजा धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करते हुए शासन करता था। वह राजा पुत्र, पौत्र और धन आदि से संपन्न और विष्णु का परम भक्त था। एक दिन जब राजा सुखपूर्वक अपनी सभा में बैठा था तो आकाश मार्ग से महर्षि नारद उतरकर उसकी सभा में आए। राजा उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और विधिपूर्वक आसन व अर्घ्य दिया।

        सुख से बैठकर मुनि ने राजा से पूछा कि हे राजन! आपके सातों अंग कुशलपूर्वक तो हैं? तुम्हारी बुद्धि धर्म में और तुम्हारा मन विष्णु भक्ति में तो रहता है? देवर्षि नारद की ऐसी बातें सुनकर राजा ने कहा- हे महर्षि! आपकी कृपा से मेरे राज्य में सब कुशल है तथा मेरे यहाँ यज्ञ कर्मादि सुकृत हो रहे हैं। आप कृपा करके अपने आगमन का कारण कहिए। तब ऋषि कहने लगे कि हे राजन! आप आश्चर्य देने वाले मेरे वचनों को सुनो।

        मैं एक समय ब्रह्मलोक से यमलोक को गया, वहाँ श्रद्धापूर्वक यमराज से पूजित होकर मैंने धर्मशील और सत्यवान धर्मराज की प्रशंसा की। उसी यमराज की सभा में महान ज्ञानी और धर्मात्मा तुम्हारे पिता को एकादशी का व्रत भंग होने के कारण देखा। उन्होंने संदेशा दिया सो मैं तुम्हें कहता हूँ। उन्होंने कहा कि पूर्व जन्म में ‍कोई विघ्न हो जाने के कारण मैं यमराज के निकट रह रहा हूँ, सो हे पुत्र यदि तुम आश्विन कृष्णा इंदिरा एकादशी का व्रत मेरे निमित्त करो तो मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है।

        इतना सुनकर राजा कहने लगा कि हे महर्षि आप इस व्रत की विधि मुझसे कहिए। नारदजी कहने लगे- आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन प्रात:काल श्रद्धापूर्वक स्नानादि से निवृत्त होकर पुन: दोपहर को नदी आदि में जाकर स्नान करें। फिर श्रद्धापूर्व पितरों का श्राद्ध करें और एक बार भोजन करें। प्रात:काल होने पर एकादशी के दिन दातून आदि करके स्नान करें, फिर व्रत के नियमों को भक्तिपूर्वक ग्रहण करता हुआ प्रतिज्ञा करें कि ‘मैं आज संपूर्ण भोगों को त्याग कर निराहार एकादशी का व्रत करूँगा।

        हे अच्युत! हे पुंडरीकाक्ष! मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिए, इस प्रकार नियमपूर्वक शालिग्राम की मूर्ति के आगे विधिपूर्वक श्राद्ध करके योग्य ब्राह्मणों को फलाहार का भोजन कराएँ और दक्षिणा दें। पितरों के श्राद्ध से जो बच जाए उसको सूँघकर गौ को दें तथा ध़ूप, दीप, गंध, ‍पुष्प, नैवेद्य आदि सब सामग्री से ऋषिकेश भगवान का पूजन करें।

        रात में भगवान के निकट जागरण करें। इसके पश्चात द्वादशी के दिन प्रात:काल होने पर भगवान का पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराएँ। भाई-बंधुओं, स्त्री और पुत्र सहित आप भी मौन होकर भोजन करें। नारदजी कहने लगे कि हे राजन! इस विधि से यदि तुम आलस्य रहित होकर इस एकादशी का व्रत करोगे तो तुम्हारे पिता अवश्य ही स्वर्गलोक को जाएँगे। इतना कहकर नारदजी अंतर्ध्यान हो गए।

        नारदजी के कथनानुसार राजा द्वारा अपने बाँधवों तथा दासों सहित व्रत करने से आकाश से पुष्पवर्षा हुई और उस राजा का पिता गरुड़ पर चढ़कर विष्णुलोक को गया। राजा इंद्रसेन भी एकादशी के व्रत के प्रभाव से निष्कंटक राज्य करके अंत में अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर स्वर्गलोक को गया।

        हे युधिष्ठिर! यह इंदिरा एकादशी के व्रत का माहात्म्य मैंने तुमसे कहा। इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से छूट जाते हैं और सब प्रकार के भोगों को भोगकर बैकुंठ को प्राप्त होते हैं। इति शुभम्


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